Saturday, May 18, 2024
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फाल्गुन मास में बाहरी सराज के नगेला देव के सम्मान में गड़ाई उत्सव परम्परा

कुल्लू जिले का बाहरी सराज क्षेत्र शैव, शाक्त व नाग मत परम्परा के लिये विख्यात रहा है. बाहरी सराज क्षेत्र कुल्लू जिले के मुख्यालय से दक्षिण दिशा में सतलुज घाटी क्षेत्र के अंतर्गत है. सुप्रसिद्ध जलोड़ी व बिश्लेऊ दर्रे बाहरी सराज को कुल्लू के शेष भाग से अलग करते हैं. बाहरी सराज रियासती काल में कई गढ़ों में विभक्त था. गढ़ जहां प्रशासनिक इकाईयां थीं वहीं इन गढ़ों के अधिष्ठाता देव व संस्कृति भिन्न हुआ करती थी.आज भी बाहरी सराज के देव समूह गढ़ों के अधिपति माने जाते हैं और गढ़ विशेष की देव परम्पराओं का निर्वहन पारम्परिक रीति से सम्पन्न होते हैं. वास्तव में सराज शब्द को विद्वान शिव राज अर्थात् शिवभूमि का अपभ्रंश मानते हैं. कुछ मान्यातायें सराज को भौगोलिक दृष्टि से ऊंचे व पर्वतीय क्षेत्र से सम्बन्धित क्षेत्र मानते हैं. बहरहाल बाहरी सराज का यह क्षेत्र शैव मत के प्राधान्य के कारण शिवभूमि परिक्षित होता है. यहां शमशर (आनी) में शमशरी महादेव, बैहना में बैहनी महादेव, बिनण में बिनणी महादेव, आनी उपमण्डल के निथर में बूढ़ा महादेव, निरमण्ड उपमण्डल के प्राचीन गांव निरमण्ड में दक्षिणेश्वर महादेव व श्रीखण्ड महादेव शैव मत के प्रमुख देव हैं.

बाहरी सराज में खेगसु में कुसुम्भा भवानी, जाबन घाटी में पाच्छला देवी, आनी के समीप बाड़ी दुर्गा, निरमण्ड में अम्बिका देवी, ब्रहाम गढ़ में ब्रह्मचूड़ा देवी, चुनागई की बाड़ी दुर्गा व जाओं क्षेत्र की शैलासनी देवी शाक्त मत का प्रतिनिधित्व करतीं हैं. वहीं बाहरी सराज में पंद्रबीश क्षेत्र के सरपारा में प्रकट नौ नाग व जलोड़ी जोत के समीप सरेओल सर की स्वामिनी बूढ़ी नागिन के अठारह नागों की बाहरी सराज में मान्यता प्रचलित है.नाग मत भारत वर्ष में प्रगैतिहासिक काल से प्रचलित रहा है और हड़प्पावासी नाग उपासक रहे हैं. पुराणों में अनंत नाग, वासुकि नाग,तक्षक नाग,पदमनाभ नाग,कमल नाग, शंखपाल नाग,धृतराष्ट्र नाग व कालिय नाग का वर्णन मिलता है. यजुर्वेद और अथर्वेद में नाग पूजा के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं.नाग व किन्नर हिमालयी पहाड़ियों की आदिम जातियां रहीं हैं. लोकवार्ता के अनुसार नाग भारत में आर्यों के विस्तार से पूर्व एक बड़े क्षेत्र में आबाद थे. सतलुज घाटी के अंतर्गत मण्डी जिले के सुकेत,शिमला जिले के कुमारसैन व कोटगढ़ एवम् कुल्लू जिले के बाहरी सराज में नागों की सत्ता आज भी स्थापित है. सुकेत-मण्डी के कमरूनाग,माहूंनाग,सरही नाग,कजौणी नाग,पोखी नाग,चवासी नाग व झाकड़ू नाग, बाहरी सराज के कुई काण्डा नाग,कतमोरी नाग,राई नाग,जाहरूनाग व झाकड़ू नाग एवम् कोटगढ़-कुमारसैन के खाचली नाग,धाली नाग,धनाल नाग व कलाड़ी नाग अपने क्षेत्र के मान्य देव हैं.बाहरी सराज का पूरा क्षेत्र आनी व कुर्पन घाटी में विभक्त है. कुर्पन घाटी में निरमण्ड का क्षेत्र अवस्थित है.

निरमण्ड प्राचीन काल में श्रीपटल नाम से विख्यात था. निरमण्ड का नामकरण सती के सिर गिरने से शिव के त्रिशूल के मुण्ड रहित होने से हुआ. यहीं भार्गव परशुराम ने तप कर मातृहत्या के ताप का शमन किया था.निरमण्ड के पूर्वोत्तर में अरसु के समीप अप्रतिम घमैणी पर्वत शिखर के अंचल में स्थित डमैहड़ी में बूढ़ी नागिन के पुत्र नगेला देव का पुण्य स्थल आस्था का केन्द्र रहा है. नगेला देव के यहां प्राकट्य के विषय में कई मान्यताएं प्रचलित हैं. नगेला देव को एक मान्यता में सरपारा के जलाशय से उत्पन्न वरूण (जल) देव के नौ पुत्रों में से एक माना जाता है. एक अन्य लोकश्रुत परम्परा नगेला देव को भगवान राम के पुत्र लव का रूप भी मानते हैं. इस मत की सत्यता इस बात से पुष्ट होती है की भगवान राम रामगढ़ के उतुंग शिखर पर डमैहड़ी के पश्चिम में प्रतिष्ठित है. एक मान्यता के अनुसार नगेला देव निरमण्ड की अधिष्ठात्री देवी अम्बिका के कहने पर रामगढ़ में प्रतिष्ठित रामस्वरूप नातली नाग की शरण में गये. यहीं नगेला देव ने नाग के पार्थिव विग्रह के समीप गज मार कर अपनी पिण्डी को उत्पन्न किया.परन्तु सर्वमान्य परम्परा के अनुसार नगेला देव सरेओल सर में प्रतिष्ठित बूढ़ी नागिन के नौ पुत्रों में एक है. नगेला देवता ने एक दिन अपनी माता बूढ़ी नागिन को रोते हुए देखा. माता के सन्ताप का कारण यह था कि एक ऊदू नामक तांत्रिक अपनी द्वेषी विद्या से सरोवर के जल को दूषित कर रहा था. इस विषय में नगेला देव अपनी गड़ाई में उल्लेख करते हैं:

सौरा बै मातो चैलो रौंदी कलांदी । बैणे पूछा किलै रोआ।
आओ ऊदू राई सौरे सौ ओरू एछा।
माता बोला सौ चौंऊ मशैरा दी दाणा कौरदौ…

क्रमश: गड़ाई के अनुसार ऊदू तांत्रिक की कुचेष्टा का उत्तर देने एवम् मां के संताप को हरने के लिये नगेला देवता ने अपने माथे से मैल निकाला और उसे आकाश की ओर उछाल दिया. अत: माथे से क्रोधावेश में आकाश की ओर उछाली गई मैल से भयंकर ओलावृष्टि हुई और आततायी ऊदू तांत्रिक का अंत हो गया ।सरेउलसर में ऊदू तांत्रिक का अंत कर नगेला देव ने नाग कण्डा, डमैहड़ी धार, मुइण व खेगसु में जाकर अनेक चमत्कार दिखाए. अपनी दैवीय सामर्थ्य का स्थान-स्थान पर परिचय देकर नगेला देव निरमण्ड के पावनस्थल पर पहुंचे. देवता ने निरमण्ड की अधिष्ठात्री अम्बिका से अपने लिये स्थान मांगा. देवी ने देवता को रामगढ़पति नातली नाग के पास भेजा. रामगढ़ में नगेला देव ने नाग के पार्थिव विग्रह के समीप भूमि पर गज से प्रहार पर अपने स्वरूप की पिंडी को उत्पन्न किया. तदोपरान्त देव रामगढ़ के पूर्व में ढौड़ गढ़ पहुंचे. देवता कुछ समय ढौड़ गढ़ में रहे. यहां से चलकर नगेला देव कशोली स्थान पर पहुंचे. कशौली में चार चम्भू में से एक चम्बू निवास करते हैं. बाहरी सराज में चार चम्बू भाईयों की बड़ी मान्यता है. चार चम्बू की उत्पति सात देवियों सहित माता अम्बिका की अनुकम्पा से बाड़ा-कुई नामक स्थान पर जलकुण्ड से हुई. ये चार चम्बू भाई अम्बिका की प्रेरणा से सनगेसर,चकेश्वर, कशोलड़ और ढ्रोपू में प्रतिष्ठित हुए. कशोली में चम्बू देव को एक राजा तंग करता था. अत: नगेला देवता ने पीड़क राजा का अपनी शक्ति से नाश कर दिया. नगेला देवता ने चम्बू देव से शिष्यत्व प्रदान करने का आग्रह किया. चम्बू देव ने नगेला की चमत्कारिक शक्ति का पुन: परीक्षण करने के लिये उन्हे डमैहड़ी से ऊपर ठैहरा नामक स्थान पर पाषाण शिला से पानी प्रकट करने का आग्रह किया. नगेला देव ने शिला पर प्रहार कर जल को प्रस्फुटित किया. देवता की इस दैवीय सामर्थ्य को देखकर चम्बू देव ने नगेला देव को अपना शिष्यत्व प्रदान किया. चम्बू देव ढौड़ गढ़ाधिपति है और गढ़ के अंतर्गत कशोलड़ बाड़ी,पाली,डमैहड़ी,पांकवा,प्रंतला,बूंग,शोहच,पोशना,थाचवा,मरैहड़ी व ठांस क्षेत्र आते हैं. चम्बू 40 गांव व 4 फाटियां-बाड़ी,शोश,कशौली व येस फाटी के अधिपति हैं. ढौड़ गढ़ के अंतर्गत सम्पूर्ण धार्मिक अनुष्ठान गढ़पति चम्बू देव के नेतृत्व में पूर्ण होते हैं. ढौड़ गढ़ में पूर्ववर्ती समय में क्रूर राजा रहता था. वह आज्ञा अवहेलना करने वाले व्यक्ति की पीठ में गोलाकार शिला बांधकर ढांक से नीचे की ओर लुढ़का देता था. वह अपने राज्य की कुंवारी कन्या का शीलहरण भी किया करता था. राजा की नृशंस प्रवृति का नाश करने के लिये पंजवीर गढ़ में प्रकट हुए और राजा का सर्वनाश किया. पंजवीर (पांचवीर) की कुल्लू व मण्डी सराज में बड़ी मान्यता है. पंचवीर कुल्लू की 26 कोठियों में मान्य देव हैं.नगेला देवता की दैवी सामर्थ्य को देखकर क्षेत्रपति चम्बू देव कशोली ने उन्हे डमैहड़ी में प्रतिष्ठित होने का स्थान प्रदान किया. नगेला देव की मां बूढ़ी नागिन का मंदिर डमैहड़ी के ईशान कोण में ऊपर की ओर है. डमैहड़ी में प्रतिष्ठित होने के बाद नगेला देव राई नाग के स्थल कंडू पहुंचे. यहां भी नगेला देव ने राई नाग को अपने चमत्कारों से अभिभूत किया. देवता के सामर्थ्य से प्रभावित होकर राई नाग ने नगेला देव को कंडू में स्थान प्रदान किया.

नगेला देवता के अधीन डमैहड़ी, प्रंतला, पांकवा, दोगरी, बूंग, खदेव, बनाया व खजोह गांव आते हैं. नगेला देव माघ मास में धार्मिक अनुष्ठान के उपरान्त एक मास के प्रवास के लिये स्वर्ग के स्वामी इन्द्र की सभा में जाते हैं. इस एक मास की अवधि में सभी तरह के देव कार्य स्थगित रहते हैं. ऐसी मान्यता है कि नगेला देवता के स्वर्ग प्रवास के दौरान वे इन्द्र के दरवार में मृत्युलोक में अपने क्षेत्र की समस्या का विवरण प्रस्तुत करते हैं. वे देवराज इन्द्र से अपनी प्रजा के दैहिक व दैविक सौख्य को प्राप्त करने की प्रार्थना करते हैं. वास्तव में सतलुज घाटी के देव माघ मास में संक्रांति के दिन वाद्य यंत्रों की तालात्मक धुन पर स्वर्गारोहण करते हैं. इसी कालावधि में देवगण असुर गणों से युद्ध कर अपनी प्रजा पर आसुरी प्रभाव को निष्क्रिय करने का प्रयास करते हैं. देवासुर संग्राम में किसी वर्ष देवों व किसी वर्ष असुरों की जय व पराजय होती है.सतलुज घाटी के कई देव सातवें,पंद्रहवें, अठारहवें व एक मास बाद स्वधाम आकर स्वर्ग से अपनी प्रजा के लिये सौख्य और देवासुर संग्राम में हुई विजय व पराजय से मिलने वाले फल का वर्ष भर पड़ने वाले फलाफल की भविष्यवाणी करते हैं.नगेला देवस्वर्ग प्रवास से फाल्गुन संक्रांति को अपने मंदिर में लौट आते हैं. देवता के आने पर वाद्ययंत्रों की देवधुन पर स्वागत किया जाता है. सतलुज घाटी के अधिकत्तर मंदिरों में देवता फाल्गुन संक्रांति को स्वधाम आकर स्वर्ग प्रवास से लाये फल से प्रजा को उपकृत करते हैं. सतलुज घाटी के क्षेत्र में नगेला देवता फाल्गुन मास के दो प्रविष्टे को स्वर्ग से लौटकर गड़ाई उत्सव में अपनी उत्पत्ति से लेकर स्वर्गप्रवास एवम् देवासुर संग्राम का फलाफल व्याख्यायित करते हैं.

गड़ाई अनुष्ठान में देवता का गूर देवारोहण में वर्ष भर का भविष्य बखान करता है. इस वर्ष 2024 में 27 वर्ष उपरान्त नगेला देव गूर के माध्यम से वर्ष भर का बखान प्रस्तुत करेंगे. चूंकि डमैहड़ी में नगेला देवता द्वारा स्वर्गवास के बाद गड़ाई उत्सव की परम्परा गूर के अवसान के कारण 27 वर्षों से बंद पड़ी थी. परन्तु पिछले वर्ष नगेला देव की देव यात्रा अपनी माता बूढ़ी नागिन के मूल स्थान सरेउलसर में होने के कारण नये गूर की नियुक्ति सम्भव हो पाई. अत: स्वर्गवास के बाद नगेला देवता गूर के माध्यम से अवतरित होकर प्रजा के दुख-दैन्य के निवारण के साथ-साथ वर्ष भर का फलाफल का विवरण प्रस्तुत करेंगे.नगेला देवता के स्वर्गारोहण के बाद स्वधाम आगमन पर की जाने वाली भविष्यवाणी सत्य साबित होती है. गड़ाई वास्तव में गणना से व्युत्पन्न शब्द प्रतीत होता है. चूंकि गड़ाई में अच्छे-बुरे परिणाम की गणना का बखान किया जाता है. यदि देवता गड़ाई में सुनाए कि उसने असुरों के साथ युद्ध या हार-पाशा (पाशे का खेल) में पुजारी को दाव पर लगाया. ऐसी उद्घोषणा का अभिप्राय यह है कि पुजारी पर किसी आसन्न संकट की सम्भावना है. यदि देवता यह बखान करे कि मैंने हार-पाशे में वादक को दाव पर लगाया . ऐसी स्थिति में वादक के जीवन को खतरा सम्भावित है. गड़ाई उत्सव पर देवता लोगों को अपने साथ लाए शुभ फल के आशीर्वाद को आवंटित करते है.बाहरी सराज का पूर्ण क्षेत्र धार्मिक परम्पराओं से ओत-प्रोत है. वर्षभर देवता के सम्मान में अनुष्ठान का आयोजन होता रहता है.

✍️ डॉ.हिमेन्द्र बाली, इतिहासकार और साहित्यकार
नारकण्डा, शिमला, हिमाचल प्रदेश

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