✍️ हितेन्द्र शर्मा
लड़की होना ही पहाड़ सा होने से कम नहीं, कहीं ऊंची बर्फीली चोटियां, कहीं खड्ड नाले, तलहटी, समतल खेत, झरने, बेल बूटे, पत्थर चट्टानें और भी न जाने बहुत कुछ, खूब फबता है प्यार दुलार, अपनापन, किसी अजनबी जगह पर, किसी वीरान सड़क, बस अड्डे, खेत खलिहान के पास से गुजरते हुए जब कोई अपने गांव का भले ही कहीं दूर पार का ही सही, कोई मिल जाता है तो मन संतुष्ट हो जाता है। इस वीराने में भी कोई अपना तो है, मेरे गांव का, आस-पड़ोस का, अपनापन लगता उसके साथ चलने में, न कोई डर, न कोई परेशानी और रास्ता भी कट जाए हंसते, खेलते, बतियाते हुए और कई खट्टी मीठी यादें साथ जुड़ जाती है।
कहते हैं कि अब जमाना बदल गया है। हम बहुत तरक्की कर चुके हैं। हमने बहुत विकास कर लिया है। नदी नालों पर पुल, बांध बना लिए। चौडी-चौड़ी सड़कें, पक्के आलीशान घर और घर आंगन में खड़ी कार, पब्लिक कान्वेंट स्कूल में टाई लगाकर पढ़ते दुधमुंहें बच्चे, बच्चों को पढ़ाने के बहाने शहर में रहती बहू बेटियाँ। अब हमने सुविधाओं के नाम पर शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए भी कुछ भवन तैयार कर लिए हैं लेकिन क्या इतना सब कुछ काफी है जीवन में कुछ खुशियों के लिए या इससे बढ़कर कुछ और भी चाहिए जो शायद हम कहीं बहुत पीछे छोड़ आए हैं, कहीं रास्ते में भूल गए हैं।
कभी-कभार जब पिछली याद आती है तो बस ख्वाबों में ही बातें होती है। हकीकत में कुछ भी अपना नजर नहीं आता। कई बार तो अपना भी अजनबी सा लगने लगता है। साथ चलते हुए भाई, मित्र, अंकल आंटी से डर सा लगने लगता है। असुरक्षा महसूस होती है। न जाने कब, कहां, क्या हादसा हो जाए? क्या पता कौन कैसा है? हर किसी के माथे पर थोड़ी न लिखा होता है, कौन कैसा है। ऐसे में भी जीने की कसक कभी खत्म नहीं होती। हां, कभी कभार कोई दो जवां दिलों में प्यार मोहब्बत की बात हो जाती तो कई प्यार के गीत बन जाते। मेले त्योहारों में सब मिलकर उन्हीं गीतों को गाते, खूब नाचते खुशियां मनाते, कोई छुटपुट प्यार मोहब्बत इकरार तकरार की घटना घट भी जाती है जो देर तक नहीं भूलती।
अब जमाना बदल गया है, अब हम गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड बनकर रहते हैं। बड़े शहरों में तो लिव इन रिलेशनशिप भी एक फैशन हो गया है। हम क्यों पीछे रहें, अब तो पहाड़ों में भी रात को दिन ही रहता है। बस अड्डे पर दिन रात सब एक जैसा, अगर कोई हादसा हो जाए तो दिन में भी रात जैसा सुनसान गमगीन माहौल होने में देर नहीं लगती।
बस, घटना को भोगने वाला, देखने वाला सुनने वाला जब तक कुछ समझने की कोशिश करता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है पुलिस तो आदतन वैसे भी बहुत बाद में पहुंचती है और कहीं पहुंच भी जाए तो पुलिस का तो अपना अलग ही रौब रहता है। उन्हें कानून की चिंता होती है किसी की संवेदनाओं, इज्जत आबरू से उन्हें क्या लेना, उन्हें तो बस अपना काम करना होता है।
एक तरफ पहाड़ जैसा जीवन कठिन, रुखा, बेदर्द, कठोर, और संवेदनाहीन। पहले तो पहाड़ ऐसे न थे, न जाने किसकी नजर लग गई कि धौलाधार और शिवालिक की पहाड़ियों की तलहटी में बसे लोग इतने कठोर और आक्रामक होने लगे हैं कि नवरात्रि में कन्याओं के पांव धुलवाने के बाद कुछ एक मनचले हाथ में दराट लिए अधखिली नन्हीं कलियों को मसलने के लिए निकल पड़ते हैं।
ऐसा ही एक हादसा हुआ पालमपुर के बस अड्डे पर, खुलेआम, दिनदहाड़े एक युवक ने सरेआम लड़की पर दराट से हमला बोला और उस लड़की को काफी गहरी चोटें लगीं। प्रत्यक्षदर्शी कुछ युवकों ने हिम्मत करके उस हमलावर युवक को दबोच लिया। उसके हाथ से दराट भी छीन ली और उस घायल लड़की को अपने स्कूटर पर बिठाकर टांडा अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचा दिया।
सोशल मीडिया पर इस घटना का दर्दनाक वीडियो वायरल होने लगा। कुछ ऐसे लोग जिनके मन में अभी इंसानियत जिंदा है, उस घायल लड़की के जीवन की रक्षा के लिए दुआएं मांगने लगे। उधर जनसेवक चुनाव की सरगर्मियों में सुर्खियां बटोरने में लगे हैं।
इस दुखद अमानवीय और दहशत फैलाने वाली घटना के कई रूप सामने आए जो समाज की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं। यहां कानून व्यवस्था का कोई डर फिक्र नहीं है । एक लड़का खुलेआम दराट हाथ में लेकर बस अड्डे पर घूम रहा है, एक लड़की की तलाश में और जैसे ही वह लड़की उसके सामने आती है, वह दराट की तेज धार से उस निहत्थी, बेबस लड़की पर जानलेवा हमला कर देता है। लड़की बीच बचाव करने का प्रयास करती है परंतु वह अपने बचाव में कुछ नहीं कर पाती, अबला जो ठहरी, अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने की कोशिश करती लड़की और मौका मिलते ही लड़के ने तेज धार वाले हथियार से लड़की पर हमला बोला और उसे काटने की कोशिश की, एकदम हल्ला मच गया कुछ लड़कों ने जब उसे लड़की को मारते काटते देखा तो उनसे रहा नही गया उन्होंने लड़की की सहायता करने के लिए हमलावर युवक को दबोच लिया।
शायद अब समाज भी कुछ-कुछ बदलने लगा है। कुछ लोग तमाशबीन बन जाते हैं, कुछ आदतन वीडियो बनाने में माहिर होते हैं। उसी क्षण कुछ युवक ने हिम्मत करके हमलावर युवक को पकड़ा उसकी पिटाई की और लड़की की जान बचाने में कामयाब हो गए हैं। उसे अस्पताल पहुंचने में कामयाब हो गए, सोशल मीडिया पर इस घटना की वीडियो एकदम वायरल होने लगी।
ईश्वर कृपा करें और वह घायल लड़की बच जाए। लेकिन क्या जिंदा रहने पर वह इस हादसे को भूल पाएगी? वह एक सामान्य जीवन जी पाएगी या जीवन भर इस दुर्घटना को याद करके पल-पल तड़पने के लिए मजबूर होकर जीने के लिए भी बेबस हो जाएगी। क्या कानून केवल मीडिया में कुछ शब्द कहकर पल्ला झाड़ लेगा हमेशा की तरह या उसके जख्मों पर मरहम लगाने का कोई प्रयास होगा। जिंदा रहने पर उसे फिर इसी समाज में जीना है। फिर कभी न कभी उसे इसी बस अड्डे पर आना है। इन्हीं सड़कों पर उसे अकेले भी चलना है। देर सवेर, रात बरात, खेत खलिहान, स्कूल कॉलेज, आंगनवाड़ी, दफ्तर आते-जाते न जाने और कितने दरिंदे दराट लेकर इन मासूम लड़कियों को मारने कुचलना के लिए तैयार बैठे मिलेंगे।
कहने को तो हम कन्या पूजन भी करते हैं। मां को अपना अपनी आराध्य मानते हैं। व्रत उपवास भी करते हैं। परंतु देवी मां की साक्षात् अंश इन मासूम लड़कियों पर जब इस तरह के अत्याचार होते हैं सच में कलेजा कांपने लगता है। रातों की नींद गायब हो जाती है। ऐसी लड़कियों में अपनी बच्चियों की सूरत नजर आने लगती है। आज यह हादसा किसी अजनबी लड़की के साथ हुआ है। कल मेरी बहन, बेटी या परिवारजन या किसी सखी सहेली के साथ हुआ तो कौन बचाएगा उसे। कैसे हम जी पाएंगे? हमारी रक्षा कैसे हो पाएगी? यह प्रश्न मन में घूमते रहेंगे। शायद तब तक, जब तक धौलाधार पर बर्फ जमी रहेगी।
आज जरूरत है शासन-प्रशासन के कठोर दंड की ताकि जो हर किसी अबला को अपनी बहन बेटी समझ कर उसकी रक्षा करने के लिए आगे आए उसे सुरक्षा दें। उसे विश्वास दिलाएं कि घर, परिवार, खेत-खलिहान दफ्तर, बस अड्डा, रेलवे स्टेशन, घर आंगन मैं बेटियों को सुरक्षा मिले और असामाजिक तत्वों एवं दरिंदों को कड़ी से कड़ी सजा मिले ताकि भविष्य में कोई भी इस तरह की घटना को अंजाम देने का साहस न कर पाए। बहन बेटी को इस बात का एहसास हो कि यह घर परिवार उसका अपना है। उसे सुरक्षा का विश्वास हो। सब कुछ उसका है उसका अपना सा उसे हक है यहां हंसने बतियाने, खेलने कूदने, मुस्कुराने और चुलबुली हरकतें करने का उसे हाथ मिले। किसी को कोई हक नहीं है कि वह उसके जीवन की मुस्कान को छीन ले। समाज में संवेदना अपनापन प्यार मोहब्बत का एहसास हमारी इन बेटियों को जरूर होना चाहिए।
इस अधमरे समाज में जान नहीं दिखती। हमें जुल्म को सहने की आदत सी हो गई है। किसी पर अत्याचार होता रहे, हमें क्या है? हम तो सुरक्षित हैं हमारा भला कौन क्या बिगाड़ सकता है? लेकिन इस दंभ में यह भूल जाते हैं कि आज उसकी बारी है, कल मेरी भी तो हो सकती है। आज किसी अजनबी पर दरार चला है तो कल मेरे किसी अपने पर भी कोई दराट से वार हुआ है कल मुझ पर भी हो सकता है। आज सौभाग्य रहा कि कुछ युवकों ने हिम्मत करके हमलावर को दबोच लिया। उसका दरार छीन लिया और घायल लड़की अस्पताल तक पहुंच पाई। कल क्या होगा? हमेशा तो कोई बचाने नहीं आएगा। फिर यह पुलिस कानून व्यवस्था शासन प्रशासन किस मर्ज की दवा है? ये प्रश्न हमारे अपने हैं हमारे परिवार और हमारे समाज के बीच में से निकले हैं। हमारे मन से उपजे हैं। हमारे मन में कुलबुला रहे उस घायल लड़की की तरह जो तेज धार हथियार दराट से चित्त होने से शायद बच गई हो। क्या कानून अपना काम करेगा या इस बेगुनाह लड़की को न्याय भी मिल सकेगा? अथवा हमेशा की तरह जन आक्रोश शांत होने तक कुछ दिखावटी कार्यवाही करने का ढोंग रचाया जाएगा और फिर कुछ दिनों बाद उस दरिंदे को फिर से इन मासूम लड़कियों के बीच में दराट हाथ लिए हुए खुला छोड़ दिया जाएगा…
✍️ हितेन्द्र शर्मा
(पत्रकार एवं साहित्यकार)
कुमारसैन, शिमला, हि.प्र.